छः वर्ष बीत गये अब। उस सुबह मैं सो कर जगा भी नहीं था कि एक मित्र का फोन आया। फोन उठाते ही वो चीखे "जल्दी न्युज देखो"। मैं भी घबड़ा सा गया कि आखिर क्या हुआ? खैर किसी अनजान से खतरे से डरते हुए मैंने टीवी सेट ऑन किया तो सारे राष्ट्रीय समाचार चैनल सामान्य समाचार ही दिखा रहे थे। कहीं कोई बड़ी घटना हुई हो ऐसा प्रतीत तो नहीं हुआ। मैं वापस से अपने मित्र को फोन करने ही वाला था कि तभी समाचार चैनल "आज तक" के स्क्रीन पर नीचे चल रहे न्युज पट्टी पर नज़र पड़ी और उसे पढते-पढते मैं किकर्तव्यविमुढ़ हो चुका था, कुछ समझ में नहीं आ रहा कि इस समाचार पर मेरी प्रतिक्रिया क्या हो? समाचार था -"रणवीर सेना प्रमुख ब्रह्मेश्वर मुखिया की गोली मार कर हत्या"। जो लोग रणवीर सेना या मुखिया जी उर्फ "बाबा" को नहीं जानते, उनको सुनने में शायद यह एक सामान्य समाचार लगे पर मेरे लिए यह किसी व्यक्तिगत वज्राघात से कम नहीं था।
शायद आप मुझे जानते हों या ना हों पर मैं यह बता दूँ कि मैं रणवीर सेना और स्व ब्रह्मेश्वर सिंह "बाबा" का समर्थक हूँ। हालांकि मैं उनसे कभी मिल नहीं पाया पर उनसे जुड़े हर समाचार पर मेरी विशेष अभिरुचि रही है।शायद उसी कारण से एक समय ऐसा आया जब मैंने उन्हें मसीहा मान लिया। हो सकता है कि आप मेरी भावनाओं से सहमत हों, हो सकता है ना हों पर उससे मेरी श्रद्धा और सोच में रत्तीभर का भी अंतर नहीं आयेगा।
वैसे यह लेख मैं रणवीर सेना के बारे में नहीं लिख रहा हूँ। पुर्व में सोशल मीडिया के अलग अलग प्रारूपों में रणवीर सेना के बारे में मैं बहुत कुछ लिख चुका हूँ जो कि मेरे ब्लाॅग और "भुमंत्र" के पटल पर भी आपको मिल जायेगा। यह लेख केवल और केवल आदरणीय स्व मुखिया जी को श्रद्धांजलि भर है।
हाँ तो अब उस मनहूस सुबह पर वापस आते हैं। उस किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति में जब दिमाग और बाकी शरीर का तारतम्य छूट चुका था; हाथ, आंख और कान अलग अलग दिशाओं में अटक गये थे तब केवल अश्रु ही थे जो मेरे दिल और दिमाग को सही रूप से समझ पा रहे थे और वो अविरल धारा के रूप में बह रहे थे। शायद मेरे अपने बाबा का भी जब स्वर्गवास हुआ था तो मैं इतना नहीं रोया था जितना उस दिन मैं स्व मुखिया जी के लिए रोया था। उस एक पल में सामने उनके जीवन और सुकर्म से जुड़ी सारी बातें मेरी आंखों के सामने से गुजड़ गयीं।
रणवीर सेना का बनना, रणवीर सेना को खड़ा करने में "बाबा" का योगदान, रणवीर सेना द्वारा किसानों की रक्षा और माओवादी राक्षसों का संहार.......... सबकुछ तो किया था बाबा ने। समाज सेवा के लिए इससे बड़ा बलिदान क्या होगा कि एक किसान हल छोड़ कर बंदूक उठा ले और अपने गाँव, अपने आस पड़ोस के सभी किसानों के हितों की रक्षा करे?? जो रास्ता उन्होंने चुना उसपर बहस हो सकती है पर जब पुलिस प्रशासन बौनी हो जाए और आपके पास दो ही विकल्प बचें कि या तो आप मारे जाएँ या फिर हथियार उठा लें तो यह आपके व्यक्तित्व का विषय होता है कि आप कौन सा रास्ता चुनते हैं? 1990 में यही परिस्थिति कश्मीरी पंडितों के सामने आयी और उन्होंने खुद लड़ने के बदले सरकार पर आश्रित होना ज्यादा उचित समझा। अन्ततः उन्हें अपना घर, अपना राज्य छोड़ कर पलायन करना पड़ा और बाकी इतिहास है।
भगवान परशुराम के "वंशज" स्व ब्रह्मेश्वर सिंह जी ने पलायन के बदले "आत्मबलिदान" का रास्ता चुना। शायद आज हम और आप वो करने की हिम्मत ना कर पायें क्योंकि हमें लगता है कि हम परिवार वाले हैं। पर "बाबा" ने किया और वो भी तब जब उनके पीछे भी भरापूरा परिवार खड़ा था। वो परिवार जो उनकी कमज़ोरी ना बनकर उनका संबल बना। "बाबा" ने जो मार्ग चुना, उसकी परिणति शायद वही होनी थी जो उस मनहूस सुबह हुई पर फिर भी अगर देखें तो यह एक युग का अंत ही हुआ था। एक युग जब निकम्मी सरकार ने आततायी नक्सलियों के सामने घुटने टेक दिये थे, जब किसान अपनी ही खेत में खेती करने पर मार दिये जाते थे, तब एक व्यक्ति का इस अन्याय का प्रतिकार करना। उस युग का अंत बाबा के देहावसान के साथ हुआ था।
आज जब "खुशहाल मगध" को देखता हूँ तो बरबस ही मन श्रद्धाभाव से "बाबा" को नमन करता है कि आपने अपने प्राणों की आहुति देकर पुरे मगध को जीवन की नयी ज्योति दे दी। नौ वर्ष जेल की यातना सही, सरकार के सब जुल्म सहे पर समाज और अभियान से घात नहीं किया। अंततः सभी झूठे केसों से बरी हुए और समाज और किसान सेवा करते रहे। एक वृद्ध जो युवाओं के साथ कंधे से कंधा मिलाते हुए दमन और मृत्यु का सामना करे, एक वृद्ध जो किसान के हितों की रक्षा के लिए आत्माहुति दे दे....... क्या कहेंगे आप उस वृद्ध को? मैंने तो आजतक ऐसे दो ही वृद्धों की कहानी सुनी थी ...... एक अंग्रेजों के दांत खट्टे करने वाले बाबु वीर कुंवर सिंह थे और दुसरे आपातकाल के दमन के जाल को तोड़ने वाले लोकनायक जयप्रकाश हुए। इस परंपरा में तीसरा अगर कोई हुआ तो वो शायद "भुमिपुत्र" ब्रह्मेश्वर सिंह हुए।
मुझे बहुधा आभास होता है कि मेरा उनसे कोई रिश्ता है। कभी दर्शन नहीं हो पाने का मलाल अवश्य है और शायद इसी आत्मग्लानी से बचने के लिए मैं उन्हें "बाबा" कहता हूँ। कम से कम इसी बहाने मन को बहला तो लेता हूँ।
वैसे ब्रह्मेश्वर मुखिया एक व्यक्ति का नाम नहीं था। वह स्वयं में एक सोच थे, स्वयंसेवा की सोच, आत्मनिर्भरता की सोच, एक सोच जो आपके बाहुबल को ललकारती हो, एक सोच जो आफत के समय आपको स्वशक्ति की याद दिलाती हो, एक सोच जो जो आपको आपके बल पर जीना सीखाती है। मुखिया जी का पुरा जीवन एक आदर्श है जो आपको पलायनवादी से कर्मवाद की ओर ले जाती है। उस सुबह बस वो शरीर मरा था क्योंकि विचार हमेशा अमर रहता है। वह सोच कभी नहीं मरेगा वह सोच सदासर्वदा के लिए अनुकरणीय है। जब जब वैसी परिस्थिति आयेगी लोग स्वतः ही उस सोच का अनुकरण करेंगे।
बाबा के लिए मैं अपनी भावनाएँ व्यक्त करने बैठूँ तो शायद एक युग भी छोटा पड़े और मेरे शब्द तो खैर .......
अंत में ईश्वर से बस यही कामना है कि "बाबा" को बैकुंठ में स्थान मिले।
अंत में ईश्वर से बस यही कामना है कि "बाबा" को बैकुंठ में स्थान मिले।
प्रणाम
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