Tuesday, September 1, 2015

महाभारत रिविजिटेड

हस्तिनापुर का दरबार सजा था। महाराज धृतराष्ट्र महारानी गांधारी के साथ राजसिंहासन पर विराजमान थे। पितामह भीष्म, आचार्य द्रोण एवं अन्य दरबारी भी अपने अपने स्थान पर आ चुके थे। परंपरानुसार दरबार में मंगल नृत्य और शास्त्रीय संगीत का दौर चल रहा था। सभी आनंदित हो महाराज की जयजयकार कर रहे थे। युवराज सुयोधन अपने सौभाग्य पर गर्वित थे। 

तभी द्वार पर कुछ कोलाहल हुआ और सबने उस तरफ देखा। कुछ लोग द्वार पर न्याय की फरियाद लगा रहे थे। महात्मा विदुर ने उन्हें दरबार में आकर अपनी समस्या सुनाने का संकेत किया। 

सभी लोग दरबार में महाराज को नमन कर खडे हो गये। आपस में बहुत इशारे करने के बाद एक मलिन से दिखने वाले झोला टांगे व्यक्ति ने बोलना शुरू किया - "महाराज आप कुरू वंश के वंशज हैं। हम सभी लोग पुश्तों से आपके वंश के राजाओं की सेवा करने रहे। पर ऐसा कब तक चलेगा? क्या आज के विकसीत समय में भी हम जातिगत व्यवस्था में ही मरते रहेंगे? क्या निचली जाति के लोगों को राजा बनने का अधिकार नहीं होना चाहिए?"
सभा सन्न रह गयी? ये क्या हो गया? 

तभी दुसरे ने बोला - "गुरू द्रोण सिर्फ राजकुमारों को शिक्षा देते हैं। महाराज अब तो राईट टु एजुकेशन भी लागू हो चुका है, फिर 25% सीट तो आस पास के अल्पसंख्यक और निचली जाति के बच्चों के लिए आरक्षित होना चाहिए। क्या गुरू द्रोण का हमारे बच्चों को पढाने से मना करना महाराज के कानुन का अपमान नहीं है? 

महाबली भीष्म अब तक गुस्से से कांपने लगे थे। उनके क्रोध का बांध अब टूटा कि तब टूटा।


इससे पहले की कोई और कुछ बोलता, तीसरे ने कहा - "इस दरबार में सबसे बुद्धिमान व्यक्ति महात्मा विदुर हैं। क्या उन्हें राजा नहीं बनना चाहिए? एक जेएनयू प्रोफेसर मेटेरियल टाईप व्यक्ति के क्षमता का समुचित उपयोग नहीं होना, क्या उनका अपमान नहीं है? और यह दोहरा मापदंड क्या सिर्फ इसलिए कि वो एक दासीपुत्र हैं?"

अब तो दरबार में कोहराम मच चुका था। दरबारी दो भागों में बंट चुके थे। पहले वे जो जाति व्यवस्था के तहत महाराज धृतराष्ट्र और उनके वंश के साथ थे, उनको कट्टर कहा गया, दुसरे वो जो जाति व्यवस्था को तोडकर समरसता और बराबरी के सिद्धांत पर हर किसी को योग्यता के आधार पर राजा का पद देना चाहते थे, वो लिबरल कहलाये। 

अब तलवारें खींच चुकी थी। दरबार रक्तरंजित होने ही वाला था कि महाबली भीष्म और महात्मा विदुर ने बीच का रास्ता निकालने हेतु हस्तक्षेप किया।

अंततोगत्वा एक विमर्श समिति बनाने का फैसला हुआ जिसमें महाराज शल्य, राजकुमार शकुनी और गुरू द्रोण को सदस्य नियुक्त किया गया। यह समिति अगले चार माह में लोगों से बातचीत करके एक विस्तृत रिपोर्ट दरबार के पटल पर रखती जिसपर फिर महाराज धृतराष्ट्र कोई फैसला लेते। 

परन्तु यह समिति कार्य प्रारंभ करती उससे पहले हो विरोध शुरू हो गया। और इस बार नेतृत्व किया अंगनरेश कर्ण ने। गुरू द्रोण से उनका वैर जगजाहिर था। कर्ण ने द्रोण के समिति सदस्य बनने पर प्रश्न खडे कर दिये। महाराज कर्ण ने कहा कि जब जातिय नफरत फैलाने का आरोप गुरू द्रोण पर भी लगा है तो वो खुद इस समिति के सदस्य कैसे हो सकते हैं? कर्ण ने सीधे सीधे कहा कि गुरू द्रोण ने मुझे शिक्षा देने से मना किया कि मैं सूतपुत्र हूँ, एकलव्य का तो अंगूठा ही कटवा लिया क्योंकि वो भी निचली जाति का था। अब ऐसे व्यक्ति से किस न्याय कि आशा? लेकिन अगर फिर भी महाराज धृतराष्ट्र द्रोण को कमेटी में रखेंगे तो मैं मानवाधिकार आयोग और अनुसूचित जाति/ जनजाति आयोग में इस मुद्दे को उठाऊंगा। 

अब मामला फिर से उलझ चुका था। वे लोग, जो दरबार में अपनी फरियाद सुनाने आये थे, भी मांग करने लगे कि समिति में "उनके" वर्ग के लोगों को भी बराबरी का स्थान मिले। इसपर किसी दरबारी ने महात्मा विदुर का नाम सुझाया। महाराज धृतराष्ट्र को भी यह सुझाव उचित प्रतीत हुआ। 

लेकिन यह क्या? जो लिबरल नागरिक दल आया था अब वह आपस में ही उलझ पडा। कुछ लोगों ने ये कह कर महात्मा विदुर का विरोध कर दिया कि उनकी रचना विदुर नीति संघ परिवार की सोच से मिलता जुलता है। इसतरह वो हिन्दूवादी ताकतों की विचारधारा के हुए। इसलिए हम लिबरलस उनका विरोध करते हैं। दुसरा गुट कह रहा था कि उनकी विचारधारा कुछ भी हो पर वो शुद्र हैं। पहले दल से दुसरे दल ने पुछा - भगवान कृष्ण भी तो गीता का उपदेश देते हैं जो कि विशुद्ध हिन्दु ग्रंथ है पर "आप" उन्हें पिछडा वर्ग का मानते हैं या नहीं??

अब बात जाति से उठकर धर्म पर आ गयी तो लिबरल ग्रुप फिर से दो फाड़ हो गया पहला लिबरल ही कहलाये तो दुसरे खुद को इंटरनेट हिन्दू कहलाने में गर्व का अनुभव करने लगे। लिबरल ग्रुप की मांग थी कि वैसे सभी शुद्र जो हिन्दु वादी हों, उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक घोषित किया जाय और उन्हें किसी तरह का आरक्षण नहीं दिया जाय साथ ही हिंदु धर्म मानने वालों पर शासन टेक्स लगाये। इंटरनेट हिन्दुओं की मांग थी कि हिन्दू धर्म को राजकीय धर्म घोषित किया जाए और धर्म परिवर्तन पर रोक लगे।

अब ये दोनों खुद में ही लड रहे हैं। महाबली भीष्म ने आश्वासन दिया है कि जो भी दल इस युद्ध में विजयी होगा, महाराज उसके मांगों पर सहृदय होकर विचार करेंगे।

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