बिहार विधानसभा चुनाव की आधिकारिक घोषणा हो चुकी है। राजनीतिक बिसातें बिछ चुकी हैं। चुनावी सरगर्मी तो बीते एक दो महीने से पुरे उफान पर था ही और प्रधानमंत्री मोदी जी ने ताबड़तोड़ सभाएं और सवा लाख करोड़ का पैकेज घोषित कर के और इसे भड़का दिया।
बिहार चुनाव हमेशा से राष्ट्रीय चर्चा का विषय रहा है। कारण शायद यह हो कि यहां के क्षेत्रीय नेता भी राष्ट्रीय राजनीति की लगाम थामने का माद्दा रखते हैं। या फिर लाखों अप्रवासी बिहारी जो देश के हर कोने में अपनी कर्मठता और मेहनत से बिहार का नाम बुलंद करते हैं। या फिर प्रिंट और टीवी (खास कर हिन्दी) मीडिया में बिहारीयों के प्रभुत्व, इस का कारण रहा है। कारण जो भी हो पर ऐसे भी कहा गया है कि दिल्ली की गद्दी का रास्ता युपी और बिहार से होकर जाता है तो अगर पुरा देश बिहार को लेकर उत्सुक होता है तो वो सही ही है।
और हो भी क्यों ना, बिहार ने इस देश को कुछ सबसे अच्छे राजनीतिक प्रतिक दिये हैं चाहे वो देशरत्न राजेंद्र प्रसाद हों या श्री कृष्ण बाबु हों या अनुग्रह बाबु या फिर लोकनायक जयप्रकाश। यह बिहार की विरासत ही है जिसने वैशाली (जहां लोकतंत्र की जन्मभूमि है) से लेकर जेपी के छात्र आंदोलन तक इस देश को नये आयाम दिये।
पर जैसा अक्सर होता है कि उन्नत विरासत आपके उज्ज्वल भविष्य की गारंटी नहीं देता है। और बिहार भी इस नियम का अपवाद नहीं था। बहुत से लोग जेपी आंदोलन को बिहार के राजनीतिक पुनर्जागरण का काल कहते हैं पर मैं इससे सहमत नहीं हूं। जातिय चेतना इत्यादि सामाजिक विषयों में तो जेपी आंदोलन सफल रहा पर राजनीतिक शुचिता और सार्वजनिक जीवन में सदाचार का लोप जेपी आंदोलन के बाद ही शुरू हुआ। जेपी ने जिन नये नेताओं की पौध को सींचा संवारा, किसे पता था कि वही पौधे बडे होकर जेपी के आदर्शों की चिता के लिए लकडी उपलब्ध करायेंगे? खैर ........
आज के परिदृश्य को देखें तो दो मुख्य राजनीतिक केंद्र हैं बिहार में, एक भाजपा नीत गठबंधन दूसरा नीतीश कुमार का गठबंधन। नीतीश के खेमे में लालू प्रसाद और कांग्रेस है। समाजवादी पार्टी इससे बाहर जा चुकी है और शरद पवार की एनसीपी भी अकेले ही लडने का फैसला ले चुकी है। एक माह पहले तक जो महागठबंधन की हुंकार लग रही थी अब उसका झाग बैठ चुका है।
वैसे यह भी मजेदार ही था की बिहार में राजद और जदयू के विलय और समझौते को वृहद जनता परिवार के साथ आने के रूप में प्रचारित किये गया। सपा, जद (से) और लोक दल को कुछ पल के लिए छोड़ दें तो बिहार में ही पासवान की लोजपा, कुशवाहा की रालोसपा और पप्पु यादव तथा जीतन राम मांझी जैसे लोग भी तो उसी "जनता दल" के वंशज हैं। अगर बिहार में 6 में से 4 भाई उस विलय/ समझौते से अलग ही थे तो यह विलय (जो हो ना सका) वृहद कैसे था?
और जो दो मिले भी वो कौन हैं? लालू प्रसाद और नीतीश। जी हाँ ये वहीं हैं जो मई 2014 के पहले एक दूसरे को पानी पी पी कर कोसते थे। पर मोदी लहर ने इनकी स्थिति ऐसी कर दी अब ये गलबहियां डाले घूम रहे हैं। खैर आज के राजनीतिक दौर में किसी से अपने राजनीतिक आदर्शों पर टिकने की आशा करना, गलत ही है। अब ना वो दौर रहा ना वो नेता रहे।
वैसे पुरे "बिहार जनता परिवार" में तीन बडे चेहरे थे - लालू, राम बिलास और नीतीश। लालू सबसे बडे और प्रभावशाली थे चाहे वो राजनीतिक कौशल की बात हो या जनाधार की। बिहार जैसे राज्य पर 15 साल शासन कर लेना कोई खेल नहीं है। हालांकि सबका कभी ना कभी बुरा दिन आता है सो लालू जी का भी आया। चारा घोटाले में सजायाफ्ता होने के कारण चुनाव तो नहीं लड सकते पर राजनीतिक सेटिंग में उनका कोई सानी नहीं है। और उनकी सबसे बडी महारत है कि वो मीठा बोलते हुए भी आपका सुपड़ा साफ कर देते हैं। और कांग्रेस से बढिया इसको कौन समझ सकता है।
लालू प्रसाद नब्बे के दशक में जगन्नाथ मिश्रा के नेतृत्व वाली कांग्रेस को हरा कर सत्ता में आये। उस समय मुस्लिम कांग्रेस का एकमुश्त वोट बैंक था। लालू ने पुरे का पुरा मुस्लिम वोट कांग्रेस से छीन लिया। कांग्रेस की स्थिति लगातार खराब होती जा रही थी पर लालू ने एक बडी चाल चली और लोकल नेताओं के माध्यम से कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को अपनी सरकार को समर्थन देने को मना लिया। ये वो दौर था जब लालू ने आडवाणी जी के रथ को रोक कर राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनायी थी। नीतीश अपनी महत्वाकांक्षा के कारण लालू से विद्रोह कर चुके थे और समता पार्टी बन गयी।
लालू के साम्राज्य को खतरा था पर कांग्रेस मदद को आगे आ गयी। और वो भी किस कीमत पर? लालू ने बिहार में एक भी सीट ऐसी नहीं रहने दी जहाँ कोई सिर्फ कांग्रेस के नाम पर जीत सके। फिर भी लालू कांग्रेस नेतृत्व के कृपा पात्र और नजदीकी सहयोगी बने रहे। क्या ऐसी क्षमता और किसी में है?
हालाँकि पिछले कुछ साल लालू के लिए बहुत भारी बिता। अगर ये समय का दोष ना होता तो लालू जैसे बडे नेता को हम नीतीश के समक्ष साष्टांग नहीं देख पाते। और नीतीश भी इसका पुरा फायदा उठा रहे हैं। कभी पोस्टर में जगह नहीं देते तो कभी भुजंग कह डालते हैं। संगठन या वोट बैंक हर तरह से राजद, जदयू से बडा है पर फिर भी सीटें देने में लालू को नीचा दिखाया गया। लालू ने अपने बच्चों के लिए ये सब सहा है पर कब तक? उन्होने खुद ही कहा है कि "जहर का घूंट पिया है मैंने"। अब ये जहर कभी तो रंग दिखायेगी ही। देखते जाईये।
रामबिलास पासवान को एक समय सबसे समझदार नेता माना जाता था। बहुत छोटा जनाधार होने के बावजूद को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाने में कामयाब रहे। एक समय कहावत थी कि सरकार किसी की हो, मंत्री तो पासवान ही होंगे। हालाँकि जनता से सीधा जुडाव उनकी खासियत रही पर गुजरात दंगे के बाद वाजपेयी सरकार से बाहर आना और फिर 2005 विधानसभा चुनाव में सत्ता की चाभी पास होने के बावजूद मुस्लिम मुख्यमंत्री बनवाने के नाम पर अड जाना उनकी सबसे बडी गलती थी। बिहार ने उनका यह चेहरा पसंद नहीं किया और तीनों भाई सहित पुरी पार्टी का सुपड़ा साफ हो गया।
2014 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले उनका मोदी के नेतृत्व को स्वीकार करना एक समझदारी भरा कदम था। कम से कम लोजपा में फिर से जान आ गयी। वैसे इस निर्णय के पीछे उनके बेटे चिराग का हाथ माना जाता है। अगर यह सत्य है तो यह लोजपा के लिए अच्छा ही है। नेताओं के बेटों में सामान्यतः राजनीतिक समझ कम मानी जाती है पर लगता है चिराग इसके अपवाद हैं।
नीतीश के लिए यह चुनाव सम्मान या सत्ता के लिए नहीं है बल्कि यह उनके राजनीतिक परिदृश्य में बने रहने का संघर्ष है। उनकी झुंझलाहट को इसी से समजा जा सकता है कि वो लालू के तानों को भी बर्दाश्त कर रहे हैं। पहले भाजपा से गठबंधन तोडना और फिर मांझी को मुख्यमंत्री बनाना उनके लिए किसी पाप से कम नहीं है। अगर यह चुनाव वो हार जाते हैं तो यह उनके राजनीतिक कैरियर को खत्म कर सकता है।
और फिर नीतीश का तो इतिहास रहा है कि उन्होने अपने किसी साथी को आगे बढने नहीं दिया। जिसने भी नीतीश का समर्थन किया नीतीश ने उसको ही धोखा दिया। चाहे वो लालू हों या रामबिलास या जार्ज फर्नांडिस या फिर भाजपा। जिस भाजपा ने उन्हें एक छोटे से जाति स्तरीय नेता से उठा कर केंद्रीय राजनीति में स्थान दिया और फिर बिहार का मुख्यमंत्री बनाया तथा "सुशासन बाबु" के रूप में स्थापित किया, नीतीश ने मौका मिलते ही भाजपा को दुध में से मक्खी की तरह निकाल फेंका। व्यक्तिगत द्वेष और ईर्ष्या का इससे बडा उदाहरण समकालिन इतिहास में आपको नहीं मिलेगा।
पर ये राजनीति है। यहाँ ना कोई परमानेंट सगा है ना कोई परमानेंट दुश्मन ही। सो अभी तो चुनाव का मजा लीजिए पर चुनाव बाद पुनः उठा पटक की संभावना के लिए तैयार रहिए। ना कोई गठबंधन स्थाई है ना ही कोई आदर्श, पर अगर कुछ स्थाई है तो बस सत्ता की चाह।
बाकी दल और एनडीए अगले अंक में।
अब चलता हूँ, आप भी चलते रहिए। नमस्कार

वर्तमान परिस्थितियों में तो यही लगता हैं कि अगर बराबरी की लड़ाई हुई तो बाद में मांझी सरीखे सत्ता के लोभी कुछ भी कर सकता है।।
ReplyDeleteवो तो होना ही है अविनाश। अगर संख्या बल स्पष्ट नहीं हुआ तो टूटने - जुडने का दौर फिर से चलेगा
Deleteबीजेपी गठबंधन को 131 से अधिक सी टे मिलेगी,
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