Thursday, September 10, 2015

राहुल गांधी और कांग्रेस का असमंजस

पिछले दिनों कांग्रेस कार्य समिति की बैठक हुई जिसमें निवर्तमान अध्यक्ष सोनिया गांधी को एक वर्ष का सेवा विस्तार दिया गया। सुनने में सामान्य लगता है लेकिन ऐसा करने के लिए कांग्रेस संविधान को संशोधित करना पड़ा। सुनने में भले ही यह अब भी सामान्य लगता हो पर ऐसा है नहीं।

सोनिया गाँधी वर्ष 1998 से कांग्रेस अध्यक्ष हैं। पिछले 17 सालों में कांग्रेस ने अच्छे और बुरे दोनों दिन देखे हैं पर इतना बुरा दिन पार्टी के लिए कभी नहीं आया था जब लगभग 5 दशकों तक राज करने वाली पार्टी लोकसभा 2014 के चुनाव में 44 सीटों तक ही सिमट गयी। इसकी शायद ही किसी ने कल्पना की हो। इतना तो भाजपा ने भी नहीं सोचा होगा।
थोडा और पीछे जाएं तो 2012 - 13 में कांग्रेसी तबकों में यह निश्चित लग रहा था कि कांग्रेस के युवराज (तब यही बोला जाता था) युवा राहुल गांधी पार्टी और देश का नेतृत्व करेंगे। इसकी पृष्ठभूमि पिछले की सालों से बन रही थी। हर कांग्रेसी नेता चाहे वो बड़ा हो या छोटा, अपने अपने क्षमतानुसार राहुल का आह्वान और स्वागत दोनों कर रहा था। हर कोई उनके प्रिय की सुचि में अपना नाम डलवाने को इच्छुक था।

उसी दौरान जनवरी 2013 में कांग्रेस ने जयपुर में चिंतन शिविर का आयोजन किया था। उस चिंतन शिविर की एक मात्र उपलब्धि थी राहुल गांधी का कांग्रेस उपाध्यक्ष मनोनीत होना। वैसे इसमें कोई अनोखी बात नहीं थी। कमोबेश हर कोई मानता है कि गांधी परिवार के अलावा और कोई कांग्रेस कांड नेतृत्व कर भी नहीं सकता। खैर राहुल का उपाध्यक्ष बनना उन अटकलों पर विराम था जिसमें कुछ लोग मानते थे कि सोनिया गांधी स्वयं सत्ता के हस्तांतरण पर सहमत नहीं थी।

दो दिन के चिंतन शिविर के दौरान हर ओर से यही मांग उठ रही थी कि अब समय आ गया है जब नेतृत्व राहुल जैसे युवा को सौंप देनी चाहिए। वहां उपस्थित युवाओं ने तो नारे लगा कर साथ दिया ही, आशा के विपरीत वयोवृद्ध नेतागण जिन्हौने कभी इंदिरा, संजय या राजीव के साथ काम किया था वो भी नारे लगाने में साथ थे। हर किसी को ये उम्मीद थी की जहाँ तक सोनिया जी पार्टी को लायीं हैं, राहुल वहाँ से आगे ले कर जायेंगे। 

उस समय कुछ वरिष्ठ नेता राहुल के गुरू और मार्गदर्शक हुआ करते थे। तो यह उम्मीद थी कि वर्तमान समन्वय और सहयोग चलता रहेगा। और पार्टी राहुल के करिश्माई नेतृत्व का लाभ उठाते हुए चुनाव में विजय प्राप्त करेगी।
लेकिन जो हुआ उसकी उम्मीद शायद किसी को नहीं थी। 2014 के लोकसभा चुनाव में पिछले 10 साल से सत्ताधारी कांग्रेस अपने इतिहास की सबसे बडी हार के बाद विपक्ष की बेंचों पर पहूंच गयी।

हालाँकि यह बस एक आम चुनाव था पर कांग्रेस के भविष्य पर इसका गहरा प्रभाव पड़ने वाला था। यह चुनाव पुरे तौर पर राहुल गांधी के नेतृत्व में लड़ा गया था। हालाँकि कुछ सहयोगी दल जैसे शरद पवार ने पहले ही युवराज को "मैटल टेस्ट" की चेतावनी दे दी थी पर कांग्रेस बहुत हद तक निश्चिंत थी। चुनाव तैयारी के दौरान ही राहुल ने खुले तौर पर वयोवृद्ध नेताओं को सन्यास लेने की सलाह दी थी। वो चाहते थे कि टिकट और पद युवाओं को मिले। भले ही उनकी नीयत कितनी भी साफ क्यों ना हो बुजुर्गों के एक दल, जो 10 जनपथ पर अपनी पैठ बनाये हुए हैं, को बहुत ही नागवार लगी। हो भी क्यों ना, उनका तो सार्वजनिक जीवन ही समाप्त हो जाना था। राहुल ने चुनाव के दौरान नये लोगों की टीम बनायी नया वार रूम बनाया और "अपने विश्वसतों" के हाथ में कमान सौंपी। उस समय तो वयोवृद्ध दल कुछ कर पाने कि स्थिति में ना था सो सब शांत बैठे रहे। परन्तु राहुल के टीम में अनुभव की कमी साफ दिखाई दी। चाहे वो उनकी भाषण शैली हो या भाषण के तथ्य या किस पत्रकार को साक्षात्कार दिया जाये, राहुल के टीम की अनुभवहीनता हर जगह दिखी।

और उनका सामना भी किस से था? नरेंद्र मोदी, जिन्हें निर्विवाद रूप से आज का सबसे वक्ता कहा जा सकता है। वो शब्दों के साथ खेलने की कला जानते हैं। तो परिणाम आशानुरूप ही रहा। नरेंद्र मोदी विजयी रहे और टीम राहुल पराजित।

चुनाव परिणाम के ठीक बाद हम सबों ने टीम राहुल और बुजुर्ग नेताओं के बीच आरोप - प्रत्यारोप भी देखे। यह वही खुन्नस थी जो राहुल ने बुजुर्गों को सन्यास की सलाह देकर पैदा की थी। आपसी संवादहीनता और हठधर्मिता राहुल के नेतृत्व की सबसे बडी कमी के रूप में उभर कर आयी। हठधर्मिता का स्तर यह था कि अपनी ही सरकार द्वारा लाये गये अध्यादेश को फाड़ने तक की बात कह डाली गयी। यह बुजुर्ग नेताओं के विरूद्ध खुला युद्ध था। अतः जब पराजय हुई तो सभी अनुभवी नेता दबे छुपे और कुछ लोग खुले रूप से राहुल के टीम की बुराई करने लगे। अब कल तक जिस युवा नेता का यशोगान कर रहे थे आज सीधे सीधे उनकी निंदा कैसे करते? वैसे कांग्रेस के इतिहास  में ऐसा कोई नहीं हुआ जो कांग्रेस में रह कर गांधी परिवार के विरूद्ध विद्रोह कर सके। या तो उसे मजबूर कर दिया जाता है बाहर जाने के लिए या वो खुद भाग खडा होता है।

खैर इस दो दिवसीय कार्यसमिति बैठक ने दो बातें बहुत स्पष्ट कर दी है। पहला कि राहुल पर पार्टी के भरोसे में उत्तरोत्तर ह्रास हुआ है। दूसरा कि लोग सोनिया जी को भी यह समझाने में सफल रहे हैं कि राहुल अभी तक पार्टी का बोझ उठाने के लिए सक्षम नहीं हुए हैं।

अगर गौर से देखा जाय तो यह बहुत बडी बात है। जिस राहुल गांधी को सर्वमान्य नेता बनाने के लिए सोनिया गाँधी पिछले कई सालों से हर तरह का त्याग करती आयीं हैं, उनके लिए यह किसी सदमे से कम नहीं है। जब हर तरह से मौका और श्रेय दिये जाने के बाद भी, खुद कांग्रेसी ही राहुल की क्षमता में विश्वास नहीं दिखा रहे तो फिर सहयोगी दलों से कैसी उम्मीद?

अब एक बार फिर से प्रयास होगा कि कैसे राहुल को नेता बनाया जाय। बिहार चुनाव में राजद और जदयू से गठबंधन उसी प्रयास का हिस्सा है। और इस प्रयास की गंभीरता इससे समझी जा सकती है कि विगत दिनों पटना में गठबंधन द्वारा आयोजित स्वाभिमान रैली में सोनिया गांधी ने लालू प्रसाद, जो कि चारा घोटाले में सजायाफ्ता हैं और फिलहाल जमानत पर बाहर हैं, के साथ ना केवल मंच साझा किया बल्कि लालू और नीतीश जैसे क्षेत्रीय नेताओं से पहले बोलना भी स्वीकार किया। अंदरखाने इससे बात पर असंतोष जताया गया पर लोकसभा और महाराष्ट्र, राजस्थान, झारखंड और हरियाणा की हार से पस्त कांग्रेस में नये ऊर्जा के संचार का एकमात्र विकल्प बिहार ही दिख रहा है जहाँ कांग्रेस (गठबंधन के सहारे) भाजपा को हराने का सपना देख सकती है।

अब पुत्र के भविष्य की रक्षा हेतु इतना तो त्याग करना ही पडेगा पर बडा सवाल यह है कि क्या राहुल इस बार भार उठा पायेंगे या अभी भी उनकी क्षमता अंडर कंस्ट्रक्शन ही है?

4 comments:

  1. Rahul leadership will always remain Sonia's dream.
    Curse of poor people will not let it become reality.

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  2. राहुल जी गाँधी परिवार के सभी संचित पापों के एकमुस्त फल हैं। बिल्कुल ही प्रभावहीन हैं।

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