Sunday, September 13, 2015

बिहार चुनाव और राजनीतिक गड्डमड्ड

बिहार विधानसभा चुनाव की आधिकारिक घोषणा हो चुकी है। राजनीतिक बिसातें बिछ चुकी हैं। चुनावी सरगर्मी तो बीते एक दो महीने से पुरे उफान पर था ही और प्रधानमंत्री मोदी जी ने ताबड़तोड़ सभाएं और सवा लाख करोड़ का पैकेज घोषित कर के और इसे भड़का दिया। 

बिहार चुनाव हमेशा से राष्ट्रीय चर्चा का विषय रहा है। कारण शायद यह हो कि यहां के क्षेत्रीय नेता भी राष्ट्रीय राजनीति की लगाम थामने का माद्दा रखते हैं। या फिर लाखों अप्रवासी बिहारी जो देश के हर कोने में अपनी कर्मठता और मेहनत से बिहार का नाम बुलंद करते हैं। या फिर प्रिंट और टीवी (खास कर हिन्दी) मीडिया में बिहारीयों के प्रभुत्व, इस का कारण रहा है। कारण जो भी हो पर ऐसे भी कहा गया है कि  दिल्ली की गद्दी का रास्ता युपी और बिहार से होकर जाता है तो अगर पुरा देश बिहार को लेकर उत्सुक होता है तो वो सही ही है।

और हो भी क्यों ना, बिहार ने इस देश को कुछ सबसे अच्छे राजनीतिक प्रतिक दिये हैं चाहे वो देशरत्न राजेंद्र प्रसाद हों या श्री कृष्ण बाबु हों या अनुग्रह बाबु या फिर लोकनायक जयप्रकाश। यह बिहार की विरासत ही है जिसने वैशाली (जहां लोकतंत्र की जन्मभूमि है) से लेकर जेपी के छात्र आंदोलन तक इस देश को नये आयाम दिये।

पर जैसा अक्सर होता है कि उन्नत विरासत आपके उज्ज्वल भविष्य की गारंटी नहीं देता है। और बिहार भी इस नियम का अपवाद नहीं था। बहुत से लोग जेपी आंदोलन को बिहार के राजनीतिक पुनर्जागरण का काल कहते हैं पर मैं इससे सहमत नहीं हूं। जातिय चेतना इत्यादि सामाजिक विषयों में तो जेपी आंदोलन सफल रहा पर राजनीतिक शुचिता और सार्वजनिक जीवन में सदाचार का लोप जेपी आंदोलन के बाद ही शुरू हुआ। जेपी ने जिन नये नेताओं की पौध को सींचा संवारा, किसे पता था कि वही पौधे बडे होकर जेपी के आदर्शों की चिता के लिए लकडी उपलब्ध करायेंगे? खैर ........

आज के परिदृश्य को देखें तो दो मुख्य राजनीतिक केंद्र हैं बिहार में, एक भाजपा नीत गठबंधन दूसरा नीतीश कुमार का गठबंधन। नीतीश के खेमे में लालू प्रसाद और कांग्रेस है। समाजवादी पार्टी इससे बाहर जा चुकी है और शरद पवार की एनसीपी भी अकेले ही लडने का फैसला ले चुकी है। एक माह पहले तक जो महागठबंधन की हुंकार लग रही थी अब उसका झाग बैठ चुका है।

वैसे यह भी मजेदार ही था की बिहार में राजद और जदयू के विलय और समझौते को वृहद जनता परिवार के साथ आने के रूप में प्रचारित किये गया। सपा, जद (से) और लोक दल को कुछ पल के लिए छोड़ दें तो बिहार में ही पासवान की लोजपा, कुशवाहा की रालोसपा और पप्पु यादव तथा जीतन राम मांझी जैसे लोग भी तो उसी "जनता दल" के वंशज हैं। अगर बिहार में 6 में से 4 भाई उस विलय/ समझौते से अलग ही थे तो यह विलय (जो हो ना सका) वृहद कैसे था?

और जो दो मिले भी वो कौन हैं? लालू प्रसाद और नीतीश। जी हाँ ये वहीं हैं जो मई 2014 के पहले एक दूसरे को पानी पी पी कर कोसते थे। पर मोदी लहर ने इनकी स्थिति ऐसी कर दी अब ये गलबहियां डाले घूम रहे हैं। खैर आज के राजनीतिक दौर में किसी से अपने राजनीतिक आदर्शों पर टिकने की आशा करना, गलत ही है। अब ना वो दौर रहा ना वो नेता रहे।

वैसे पुरे "बिहार जनता परिवार" में तीन बडे चेहरे थे - लालू, राम बिलास और नीतीश। लालू सबसे बडे और प्रभावशाली थे चाहे वो राजनीतिक कौशल की बात हो या जनाधार की। बिहार जैसे राज्य पर 15 साल शासन कर लेना कोई खेल नहीं है। हालांकि सबका कभी ना कभी बुरा दिन आता है सो लालू जी का भी आया। चारा घोटाले में सजायाफ्ता होने के कारण चुनाव तो नहीं लड सकते पर राजनीतिक सेटिंग में उनका कोई सानी नहीं है। और उनकी सबसे बडी महारत है कि वो मीठा बोलते हुए भी आपका सुपड़ा साफ कर देते हैं। और कांग्रेस से बढिया इसको कौन समझ सकता है।

लालू प्रसाद नब्बे के दशक में जगन्नाथ मिश्रा के नेतृत्व वाली कांग्रेस को हरा कर सत्ता में आये। उस समय मुस्लिम कांग्रेस का एकमुश्त वोट बैंक था। लालू ने पुरे का पुरा मुस्लिम वोट कांग्रेस से छीन लिया। कांग्रेस की स्थिति लगातार खराब होती जा रही थी पर लालू ने एक बडी चाल चली और लोकल नेताओं के माध्यम से कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को अपनी सरकार को समर्थन देने को मना लिया। ये वो दौर था जब लालू ने आडवाणी जी के रथ को रोक कर राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनायी थी। नीतीश अपनी महत्वाकांक्षा के कारण लालू से विद्रोह कर चुके थे और समता पार्टी बन गयी।

लालू के साम्राज्य को खतरा था पर कांग्रेस मदद को आगे आ गयी। और वो भी किस कीमत पर? लालू ने बिहार में एक भी सीट ऐसी नहीं रहने दी जहाँ कोई सिर्फ कांग्रेस के नाम पर जीत सके। फिर भी लालू कांग्रेस नेतृत्व के कृपा पात्र और नजदीकी सहयोगी बने रहे। क्या ऐसी क्षमता और किसी में है?

हालाँकि पिछले कुछ साल लालू के लिए बहुत भारी बिता। अगर ये समय का दोष ना होता तो लालू जैसे बडे नेता को हम नीतीश के समक्ष साष्टांग नहीं देख पाते। और नीतीश भी इसका पुरा फायदा उठा रहे हैं। कभी पोस्टर में जगह नहीं देते तो कभी भुजंग कह डालते हैं। संगठन या वोट बैंक हर तरह से राजद, जदयू से बडा है पर फिर भी सीटें देने में लालू को नीचा दिखाया गया। लालू ने अपने बच्चों के लिए ये सब सहा है पर कब तक? उन्होने खुद ही कहा है कि "जहर का घूंट पिया है मैंने"। अब ये जहर कभी तो रंग दिखायेगी ही। देखते जाईये। 

रामबिलास पासवान को एक समय सबसे समझदार नेता माना जाता था। बहुत छोटा जनाधार होने के बावजूद को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाने में कामयाब रहे। एक समय कहावत थी कि सरकार किसी की हो, मंत्री तो पासवान ही होंगे। हालाँकि जनता से सीधा जुडाव उनकी खासियत रही पर गुजरात दंगे के बाद वाजपेयी सरकार से बाहर आना और फिर 2005 विधानसभा चुनाव में सत्ता की चाभी पास होने के बावजूद मुस्लिम मुख्यमंत्री बनवाने के नाम पर अड जाना उनकी सबसे बडी गलती थी। बिहार ने उनका यह चेहरा पसंद नहीं किया और तीनों भाई सहित पुरी पार्टी का सुपड़ा साफ हो गया।

2014 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले उनका मोदी के नेतृत्व को स्वीकार करना एक समझदारी भरा कदम था। कम से कम लोजपा में फिर से जान आ गयी। वैसे इस निर्णय के पीछे उनके बेटे चिराग का हाथ माना जाता है। अगर यह सत्य है तो यह लोजपा के लिए अच्छा ही है। नेताओं के बेटों में सामान्यतः राजनीतिक समझ कम मानी जाती है पर लगता है चिराग इसके अपवाद हैं।

नीतीश के लिए यह चुनाव सम्मान या सत्ता के लिए नहीं है बल्कि यह उनके राजनीतिक परिदृश्य में बने रहने का संघर्ष है। उनकी झुंझलाहट को इसी से समजा जा सकता है कि वो लालू के तानों को भी बर्दाश्त कर रहे हैं। पहले भाजपा से गठबंधन तोडना और फिर मांझी को मुख्यमंत्री बनाना उनके लिए किसी पाप से कम नहीं है। अगर यह चुनाव वो हार जाते हैं तो यह उनके राजनीतिक कैरियर को खत्म कर सकता है।

और फिर नीतीश का तो इतिहास रहा है कि उन्होने अपने किसी साथी को आगे बढने नहीं दिया। जिसने भी नीतीश का समर्थन किया नीतीश ने उसको ही धोखा दिया। चाहे वो लालू हों या रामबिलास या जार्ज फर्नांडिस या फिर भाजपा। जिस भाजपा ने उन्हें एक छोटे से जाति स्तरीय नेता से उठा कर केंद्रीय राजनीति में स्थान दिया और फिर बिहार का मुख्यमंत्री बनाया तथा "सुशासन बाबु" के रूप में स्थापित किया, नीतीश ने मौका मिलते ही  भाजपा को दुध में से मक्खी की तरह निकाल फेंका। व्यक्तिगत द्वेष और ईर्ष्या का इससे बडा उदाहरण समकालिन इतिहास में आपको नहीं मिलेगा।

पर ये राजनीति है। यहाँ ना कोई परमानेंट सगा है ना कोई परमानेंट दुश्मन ही। सो अभी तो चुनाव का मजा लीजिए पर चुनाव बाद पुनः उठा पटक की संभावना के लिए तैयार रहिए। ना कोई गठबंधन स्थाई है ना ही कोई आदर्श, पर अगर कुछ स्थाई है तो बस सत्ता की चाह।

बाकी दल और एनडीए अगले अंक में।

अब चलता हूँ, आप भी चलते रहिए। नमस्कार

Thursday, September 10, 2015

राहुल गांधी और कांग्रेस का असमंजस

पिछले दिनों कांग्रेस कार्य समिति की बैठक हुई जिसमें निवर्तमान अध्यक्ष सोनिया गांधी को एक वर्ष का सेवा विस्तार दिया गया। सुनने में सामान्य लगता है लेकिन ऐसा करने के लिए कांग्रेस संविधान को संशोधित करना पड़ा। सुनने में भले ही यह अब भी सामान्य लगता हो पर ऐसा है नहीं।

सोनिया गाँधी वर्ष 1998 से कांग्रेस अध्यक्ष हैं। पिछले 17 सालों में कांग्रेस ने अच्छे और बुरे दोनों दिन देखे हैं पर इतना बुरा दिन पार्टी के लिए कभी नहीं आया था जब लगभग 5 दशकों तक राज करने वाली पार्टी लोकसभा 2014 के चुनाव में 44 सीटों तक ही सिमट गयी। इसकी शायद ही किसी ने कल्पना की हो। इतना तो भाजपा ने भी नहीं सोचा होगा।
थोडा और पीछे जाएं तो 2012 - 13 में कांग्रेसी तबकों में यह निश्चित लग रहा था कि कांग्रेस के युवराज (तब यही बोला जाता था) युवा राहुल गांधी पार्टी और देश का नेतृत्व करेंगे। इसकी पृष्ठभूमि पिछले की सालों से बन रही थी। हर कांग्रेसी नेता चाहे वो बड़ा हो या छोटा, अपने अपने क्षमतानुसार राहुल का आह्वान और स्वागत दोनों कर रहा था। हर कोई उनके प्रिय की सुचि में अपना नाम डलवाने को इच्छुक था।

उसी दौरान जनवरी 2013 में कांग्रेस ने जयपुर में चिंतन शिविर का आयोजन किया था। उस चिंतन शिविर की एक मात्र उपलब्धि थी राहुल गांधी का कांग्रेस उपाध्यक्ष मनोनीत होना। वैसे इसमें कोई अनोखी बात नहीं थी। कमोबेश हर कोई मानता है कि गांधी परिवार के अलावा और कोई कांग्रेस कांड नेतृत्व कर भी नहीं सकता। खैर राहुल का उपाध्यक्ष बनना उन अटकलों पर विराम था जिसमें कुछ लोग मानते थे कि सोनिया गांधी स्वयं सत्ता के हस्तांतरण पर सहमत नहीं थी।

दो दिन के चिंतन शिविर के दौरान हर ओर से यही मांग उठ रही थी कि अब समय आ गया है जब नेतृत्व राहुल जैसे युवा को सौंप देनी चाहिए। वहां उपस्थित युवाओं ने तो नारे लगा कर साथ दिया ही, आशा के विपरीत वयोवृद्ध नेतागण जिन्हौने कभी इंदिरा, संजय या राजीव के साथ काम किया था वो भी नारे लगाने में साथ थे। हर किसी को ये उम्मीद थी की जहाँ तक सोनिया जी पार्टी को लायीं हैं, राहुल वहाँ से आगे ले कर जायेंगे। 

उस समय कुछ वरिष्ठ नेता राहुल के गुरू और मार्गदर्शक हुआ करते थे। तो यह उम्मीद थी कि वर्तमान समन्वय और सहयोग चलता रहेगा। और पार्टी राहुल के करिश्माई नेतृत्व का लाभ उठाते हुए चुनाव में विजय प्राप्त करेगी।
लेकिन जो हुआ उसकी उम्मीद शायद किसी को नहीं थी। 2014 के लोकसभा चुनाव में पिछले 10 साल से सत्ताधारी कांग्रेस अपने इतिहास की सबसे बडी हार के बाद विपक्ष की बेंचों पर पहूंच गयी।

हालाँकि यह बस एक आम चुनाव था पर कांग्रेस के भविष्य पर इसका गहरा प्रभाव पड़ने वाला था। यह चुनाव पुरे तौर पर राहुल गांधी के नेतृत्व में लड़ा गया था। हालाँकि कुछ सहयोगी दल जैसे शरद पवार ने पहले ही युवराज को "मैटल टेस्ट" की चेतावनी दे दी थी पर कांग्रेस बहुत हद तक निश्चिंत थी। चुनाव तैयारी के दौरान ही राहुल ने खुले तौर पर वयोवृद्ध नेताओं को सन्यास लेने की सलाह दी थी। वो चाहते थे कि टिकट और पद युवाओं को मिले। भले ही उनकी नीयत कितनी भी साफ क्यों ना हो बुजुर्गों के एक दल, जो 10 जनपथ पर अपनी पैठ बनाये हुए हैं, को बहुत ही नागवार लगी। हो भी क्यों ना, उनका तो सार्वजनिक जीवन ही समाप्त हो जाना था। राहुल ने चुनाव के दौरान नये लोगों की टीम बनायी नया वार रूम बनाया और "अपने विश्वसतों" के हाथ में कमान सौंपी। उस समय तो वयोवृद्ध दल कुछ कर पाने कि स्थिति में ना था सो सब शांत बैठे रहे। परन्तु राहुल के टीम में अनुभव की कमी साफ दिखाई दी। चाहे वो उनकी भाषण शैली हो या भाषण के तथ्य या किस पत्रकार को साक्षात्कार दिया जाये, राहुल के टीम की अनुभवहीनता हर जगह दिखी।

और उनका सामना भी किस से था? नरेंद्र मोदी, जिन्हें निर्विवाद रूप से आज का सबसे वक्ता कहा जा सकता है। वो शब्दों के साथ खेलने की कला जानते हैं। तो परिणाम आशानुरूप ही रहा। नरेंद्र मोदी विजयी रहे और टीम राहुल पराजित।

चुनाव परिणाम के ठीक बाद हम सबों ने टीम राहुल और बुजुर्ग नेताओं के बीच आरोप - प्रत्यारोप भी देखे। यह वही खुन्नस थी जो राहुल ने बुजुर्गों को सन्यास की सलाह देकर पैदा की थी। आपसी संवादहीनता और हठधर्मिता राहुल के नेतृत्व की सबसे बडी कमी के रूप में उभर कर आयी। हठधर्मिता का स्तर यह था कि अपनी ही सरकार द्वारा लाये गये अध्यादेश को फाड़ने तक की बात कह डाली गयी। यह बुजुर्ग नेताओं के विरूद्ध खुला युद्ध था। अतः जब पराजय हुई तो सभी अनुभवी नेता दबे छुपे और कुछ लोग खुले रूप से राहुल के टीम की बुराई करने लगे। अब कल तक जिस युवा नेता का यशोगान कर रहे थे आज सीधे सीधे उनकी निंदा कैसे करते? वैसे कांग्रेस के इतिहास  में ऐसा कोई नहीं हुआ जो कांग्रेस में रह कर गांधी परिवार के विरूद्ध विद्रोह कर सके। या तो उसे मजबूर कर दिया जाता है बाहर जाने के लिए या वो खुद भाग खडा होता है।

खैर इस दो दिवसीय कार्यसमिति बैठक ने दो बातें बहुत स्पष्ट कर दी है। पहला कि राहुल पर पार्टी के भरोसे में उत्तरोत्तर ह्रास हुआ है। दूसरा कि लोग सोनिया जी को भी यह समझाने में सफल रहे हैं कि राहुल अभी तक पार्टी का बोझ उठाने के लिए सक्षम नहीं हुए हैं।

अगर गौर से देखा जाय तो यह बहुत बडी बात है। जिस राहुल गांधी को सर्वमान्य नेता बनाने के लिए सोनिया गाँधी पिछले कई सालों से हर तरह का त्याग करती आयीं हैं, उनके लिए यह किसी सदमे से कम नहीं है। जब हर तरह से मौका और श्रेय दिये जाने के बाद भी, खुद कांग्रेसी ही राहुल की क्षमता में विश्वास नहीं दिखा रहे तो फिर सहयोगी दलों से कैसी उम्मीद?

अब एक बार फिर से प्रयास होगा कि कैसे राहुल को नेता बनाया जाय। बिहार चुनाव में राजद और जदयू से गठबंधन उसी प्रयास का हिस्सा है। और इस प्रयास की गंभीरता इससे समझी जा सकती है कि विगत दिनों पटना में गठबंधन द्वारा आयोजित स्वाभिमान रैली में सोनिया गांधी ने लालू प्रसाद, जो कि चारा घोटाले में सजायाफ्ता हैं और फिलहाल जमानत पर बाहर हैं, के साथ ना केवल मंच साझा किया बल्कि लालू और नीतीश जैसे क्षेत्रीय नेताओं से पहले बोलना भी स्वीकार किया। अंदरखाने इससे बात पर असंतोष जताया गया पर लोकसभा और महाराष्ट्र, राजस्थान, झारखंड और हरियाणा की हार से पस्त कांग्रेस में नये ऊर्जा के संचार का एकमात्र विकल्प बिहार ही दिख रहा है जहाँ कांग्रेस (गठबंधन के सहारे) भाजपा को हराने का सपना देख सकती है।

अब पुत्र के भविष्य की रक्षा हेतु इतना तो त्याग करना ही पडेगा पर बडा सवाल यह है कि क्या राहुल इस बार भार उठा पायेंगे या अभी भी उनकी क्षमता अंडर कंस्ट्रक्शन ही है?

Tuesday, September 1, 2015

महाभारत रिविजिटेड

हस्तिनापुर का दरबार सजा था। महाराज धृतराष्ट्र महारानी गांधारी के साथ राजसिंहासन पर विराजमान थे। पितामह भीष्म, आचार्य द्रोण एवं अन्य दरबारी भी अपने अपने स्थान पर आ चुके थे। परंपरानुसार दरबार में मंगल नृत्य और शास्त्रीय संगीत का दौर चल रहा था। सभी आनंदित हो महाराज की जयजयकार कर रहे थे। युवराज सुयोधन अपने सौभाग्य पर गर्वित थे। 

तभी द्वार पर कुछ कोलाहल हुआ और सबने उस तरफ देखा। कुछ लोग द्वार पर न्याय की फरियाद लगा रहे थे। महात्मा विदुर ने उन्हें दरबार में आकर अपनी समस्या सुनाने का संकेत किया। 

सभी लोग दरबार में महाराज को नमन कर खडे हो गये। आपस में बहुत इशारे करने के बाद एक मलिन से दिखने वाले झोला टांगे व्यक्ति ने बोलना शुरू किया - "महाराज आप कुरू वंश के वंशज हैं। हम सभी लोग पुश्तों से आपके वंश के राजाओं की सेवा करने रहे। पर ऐसा कब तक चलेगा? क्या आज के विकसीत समय में भी हम जातिगत व्यवस्था में ही मरते रहेंगे? क्या निचली जाति के लोगों को राजा बनने का अधिकार नहीं होना चाहिए?"
सभा सन्न रह गयी? ये क्या हो गया? 

तभी दुसरे ने बोला - "गुरू द्रोण सिर्फ राजकुमारों को शिक्षा देते हैं। महाराज अब तो राईट टु एजुकेशन भी लागू हो चुका है, फिर 25% सीट तो आस पास के अल्पसंख्यक और निचली जाति के बच्चों के लिए आरक्षित होना चाहिए। क्या गुरू द्रोण का हमारे बच्चों को पढाने से मना करना महाराज के कानुन का अपमान नहीं है? 

महाबली भीष्म अब तक गुस्से से कांपने लगे थे। उनके क्रोध का बांध अब टूटा कि तब टूटा।


इससे पहले की कोई और कुछ बोलता, तीसरे ने कहा - "इस दरबार में सबसे बुद्धिमान व्यक्ति महात्मा विदुर हैं। क्या उन्हें राजा नहीं बनना चाहिए? एक जेएनयू प्रोफेसर मेटेरियल टाईप व्यक्ति के क्षमता का समुचित उपयोग नहीं होना, क्या उनका अपमान नहीं है? और यह दोहरा मापदंड क्या सिर्फ इसलिए कि वो एक दासीपुत्र हैं?"

अब तो दरबार में कोहराम मच चुका था। दरबारी दो भागों में बंट चुके थे। पहले वे जो जाति व्यवस्था के तहत महाराज धृतराष्ट्र और उनके वंश के साथ थे, उनको कट्टर कहा गया, दुसरे वो जो जाति व्यवस्था को तोडकर समरसता और बराबरी के सिद्धांत पर हर किसी को योग्यता के आधार पर राजा का पद देना चाहते थे, वो लिबरल कहलाये। 

अब तलवारें खींच चुकी थी। दरबार रक्तरंजित होने ही वाला था कि महाबली भीष्म और महात्मा विदुर ने बीच का रास्ता निकालने हेतु हस्तक्षेप किया।

अंततोगत्वा एक विमर्श समिति बनाने का फैसला हुआ जिसमें महाराज शल्य, राजकुमार शकुनी और गुरू द्रोण को सदस्य नियुक्त किया गया। यह समिति अगले चार माह में लोगों से बातचीत करके एक विस्तृत रिपोर्ट दरबार के पटल पर रखती जिसपर फिर महाराज धृतराष्ट्र कोई फैसला लेते। 

परन्तु यह समिति कार्य प्रारंभ करती उससे पहले हो विरोध शुरू हो गया। और इस बार नेतृत्व किया अंगनरेश कर्ण ने। गुरू द्रोण से उनका वैर जगजाहिर था। कर्ण ने द्रोण के समिति सदस्य बनने पर प्रश्न खडे कर दिये। महाराज कर्ण ने कहा कि जब जातिय नफरत फैलाने का आरोप गुरू द्रोण पर भी लगा है तो वो खुद इस समिति के सदस्य कैसे हो सकते हैं? कर्ण ने सीधे सीधे कहा कि गुरू द्रोण ने मुझे शिक्षा देने से मना किया कि मैं सूतपुत्र हूँ, एकलव्य का तो अंगूठा ही कटवा लिया क्योंकि वो भी निचली जाति का था। अब ऐसे व्यक्ति से किस न्याय कि आशा? लेकिन अगर फिर भी महाराज धृतराष्ट्र द्रोण को कमेटी में रखेंगे तो मैं मानवाधिकार आयोग और अनुसूचित जाति/ जनजाति आयोग में इस मुद्दे को उठाऊंगा। 

अब मामला फिर से उलझ चुका था। वे लोग, जो दरबार में अपनी फरियाद सुनाने आये थे, भी मांग करने लगे कि समिति में "उनके" वर्ग के लोगों को भी बराबरी का स्थान मिले। इसपर किसी दरबारी ने महात्मा विदुर का नाम सुझाया। महाराज धृतराष्ट्र को भी यह सुझाव उचित प्रतीत हुआ। 

लेकिन यह क्या? जो लिबरल नागरिक दल आया था अब वह आपस में ही उलझ पडा। कुछ लोगों ने ये कह कर महात्मा विदुर का विरोध कर दिया कि उनकी रचना विदुर नीति संघ परिवार की सोच से मिलता जुलता है। इसतरह वो हिन्दूवादी ताकतों की विचारधारा के हुए। इसलिए हम लिबरलस उनका विरोध करते हैं। दुसरा गुट कह रहा था कि उनकी विचारधारा कुछ भी हो पर वो शुद्र हैं। पहले दल से दुसरे दल ने पुछा - भगवान कृष्ण भी तो गीता का उपदेश देते हैं जो कि विशुद्ध हिन्दु ग्रंथ है पर "आप" उन्हें पिछडा वर्ग का मानते हैं या नहीं??

अब बात जाति से उठकर धर्म पर आ गयी तो लिबरल ग्रुप फिर से दो फाड़ हो गया पहला लिबरल ही कहलाये तो दुसरे खुद को इंटरनेट हिन्दू कहलाने में गर्व का अनुभव करने लगे। लिबरल ग्रुप की मांग थी कि वैसे सभी शुद्र जो हिन्दु वादी हों, उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक घोषित किया जाय और उन्हें किसी तरह का आरक्षण नहीं दिया जाय साथ ही हिंदु धर्म मानने वालों पर शासन टेक्स लगाये। इंटरनेट हिन्दुओं की मांग थी कि हिन्दू धर्म को राजकीय धर्म घोषित किया जाए और धर्म परिवर्तन पर रोक लगे।

अब ये दोनों खुद में ही लड रहे हैं। महाबली भीष्म ने आश्वासन दिया है कि जो भी दल इस युद्ध में विजयी होगा, महाराज उसके मांगों पर सहृदय होकर विचार करेंगे।